Warrant Balaw Blog - वारंट बाला चिट्ठा

No law, no life. Know law, know life! என்ற நமது அடிப்படைக் கொள்கை தத்துவத்திற்கு இணங்க சட்ட விழிப்பறிவுணர்வின் (அ)வசியம் உணர்ந்து இந்த வலைப்பூவிற்கு வருகை தந்துள்ள உங்களை வருக! வருக!! என அன்புடன் வரவேற்று பயன் பெறுக! பெறுக!! என வாழ்த்துகிறேன்.

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इंसाफ की तलाश में… हिन्दि

कानून की सजगता के प्रति समर्पित

Warrant-Balaw”हम कानून के दायरे में जी रहे हैं। इसलिए बाहर रहते हैं, वर्ना जेल के अंदर होते। कानून के दायरे में रहने वाले हम लोग कानून की जानकारी के बगैर जी रहे हैं। यही सचाई है। इसी वजह से हमने अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अनजान होकर, बेकार के मामलों में फँसकर जिंदगी को दुखमय बना लेते हैं।
हम इस बदहाली में क्यों और कैसे पहुँच गए? इसका एकमात्र कारण यही है कि जनता को कानून के प्रति जागरूक बनाने की दिशा में न सरकार सजग है, न लोगों की इस ओर कोई दिलचस्पी है। इस संदर्भ में तमिलनाडु के एक प्रसिद्घ एवं माननीय नेता का, जो विधिशास्त्र के जानकार नहीं थे, कथन याद आ रहा है। उन्होंने कहा था—’कानून एक अंधकक्ष है। उसमें वकील की दलील चिराग का काम करता है। इस गलत उक्ïित ने भोली-भाली जनता को कितने भ्रमजाल में डाल दिया, इसका कोई हिसाब नहीं।
चूँकि आप बाहर हैं, इसलिए कानून की सीमा के अंदर जी रहे हैं। कानून की जानकारी के बिना जब आप कानून के दायरे में जी रहे हैं, ऐसे कानून को अंधेरा कमरा कहना कहाँ तक उचित है? और फिर वकील की दलील को क्यों चिराग कहा जाए? दोनों ही उक्तियाँ कानून के प्रति अज्ञानवश कही गई बातें थीं।
मान लीजिए कि कानून का अनुपालन करने से किसी को घाटा हो गया। तब उस कानून का नाम भी ‘घाटा होना चाहिए। घाटेवाला कानून हमारे किस काम का?
१९९९ में काम्पैक्ट इलैक्ट्रिक नामक कंपनी में काम करता था। वहाँ हमारे सामने र्क समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। मुझे इन समस्याओं के कानूनी आधार का कोई ज्ञान नहीं था। दरअसल उन दिनों मैं कानून के बारे में कुछ नहीं जानता था। मैंने कानून की किताबें उलट-पुलट कर देखीं, पर मुझे पता नहीं चला कि हमें किस कानून के तहत कहाँ से निजात मिल सकती थी। तब इस शंका का निवारण पाने हेतु समाज के जानकार लोगों से मिलने के लिए कई जगह घूमा। भ्रम बढ़ते चले गए, कम नहीं हुए। उन लोगों ने मेरी उलझनों को दूर करने के बजाय मुझे और उलझनों में फँसा दिया।
इसी दौरान एक बड़े वकील से मेरी मुलाकात हुई। उसने अपने एक जूनियर को मेरे मुकदमे में हा$िजर होने के लिए भेजा। तभी मुझे पता चला कि श्रमिक कानून के विषय में उस जूनियर वकील का ज्ञान मेरे से काफी कम था। मैंने तय कर लिया कि अब वकील की तलाश में भागादौड़ी करने की $जरूरत नहीं है।
यों इधर-उधर काफी घूमने के बाद एक बार मैं रेलगाड़ी से घर लौट रहा था, किसी यात्री के हाथ से एक किताब पढऩे को मिली—’अदालत में अपना मुकदमा खुद लड़ सकते हैं। यह पुस्तक अरुप्पुकोट्टै के चेंतमिल किष़ार की लिखी हुई थी। मुझे याद आया—’अरे, दो साल पहले यही किताब मैंने चेन्ïनै के कन्निमैरा पुस्तकालय में पढ़ी थी। उस समय पढ़ तो गया था लेकिन उस किताब में चर्चित विषय समझ में नहीं आया था। कारण यही कि उस किताब में कानूनी बातों की पूरी जानकारी सही ढंग से नहीं दी गई थी।
फिर भी मैं खुश हुआ कि सही सलाहकार मिल गए। मैं सीधे अरुप्पुकोट्टïै जाकर चेंतमिल किष़ार से मिला। उन्होंने मेरे मामले का अध्ययन करके दो टूक जवाब दे दिया कि तुम्हारे मामले में कोई दम नहीं है। इसलिए मैं कोई सलाह नहीं दे सकता।
उनसे सलाह तो नहीं मिली, लेकिन इस घटना ने मेरी आँखें खोल दीं। एक तर$फ कुछ लोग हैं जो सही विषय-ज्ञान के बिना जानकारों की तरह बातें बनाते हैं, तो दूसरी तर$फ जानकार व्यक्ïित भी, मामले में इन्सा$फ मिलने की गुंजाइश न होने का कारण बताकर कानूनी सलाह देने से भी इनकार कर देता है। इसमें अ$फसोस करने की कोई बात नहीं है। क्योंकि उस व्यक्ति ने वही बात कही जो उसकी जानकारी में थी, बस।
मैं सोचने लगा, ठीक है… अब कौन-सा रास्ता पकडूँ। तभी मन में एक संकल्प जगा—अब किसी से सलाह नहीं लेनी है, बल्कि मुझे स्वयं कानूनी सलाहकार बन जाना है। यह कोई अत्युक्ति नहीं है कि इसी पक्ïके इरादे ने मुझे मौजूदा रूप में ढाल दिया।
यह मेरी दूसरी पुस्तक है। २००४ में मैंने एक किताब लिखी थी—जमानत कैसे ले सकते हैं? मुझे लगता है, लोगों में कानूनी $जागरूकता पैदा करने के लिए कम से कम पाँच किताबें लिखनी होंगी।
नब्बे फीसदी लोग आपको ऐसे मिलेंगे जो यही कल्पना पाल रहे होते हैं कि अपनी समस्या ही सबसे बड़ी है। मैं अपने अनुभव से बताना चाहता हूँ कि अगर हम समाज के हित में थोड़ी चिंता करने लग जाएँ तो हमारे ज्ञान में वृद्घि होगी, और इसी ज्ञान के बल पर समस्या का सामना करके उसका हल निकाला जा सकता है। हमारी —’केअर सोसाइटी के सदस्य यही काम करते हैं।
केअर सोसाइटी के सदस्यों ने इस धारणा को झुठला दिया है कि भुक्तभोगी को ही समस्या की गर्मी महसूस हो सकती है। इस सोसाइटी के लगभग सारे सदस्य निजी कंपनियों में काम करने वाले हैं, ह$जारों की तनख्वाह पाने वाले हैं। उनकी अपनी कोई निजी समस्या या मामला नहीं है। फिर भी समाज के सहजीवियों की मुश्किलें दूर करने में उत्साह से लगे हुए हैं। उनकी यह सामाजिक प्रज्ञा देखकर मन प्रफुल्ïल हो जाता है। यदि आप भी कानून के प्रति जागरूकता के साथ इस दिशा में अपना योगदान करें तो हम सब मिलकर समस्या-रहित समाज को रूप देने में कामयाब हो सकेंगे।
समस्या या मुश्किल को देखकर हमें डरना नहीं चाहिए, बल्कि ऐसी स्थिति पैदा करानी चाहिए जिसमें मुश्किल हमें देखकर खुद डरने लग जाए कि इस आदमी से दूर रहना ही बेहतर है। आज की हालात में मेरे ऊपर तीन वारंट हैं, इसके बावजूद किसी भी परेशानी के बिना मैं बाहर, तिस पर भी अदालतों में घूम-फिर रहा हूँ। विधि के क्षेत्र में इतनी खामियों के होने का कारण कानून के प्रति जनता का अज्ञान ही है।
दूसरी ओर अगर हम वकील के पेशे में आने वाले व्यक्तियों की शैक्षिक योग्यता पर विचार करें तो पता चलेगा कि पढ़ाई में आगे रहने वाले छात्र चिकित्सा, सूचना-प्रौद्योगिकी, इंजीनियरी जैसे क्षेत्रों की ओर चले जाते हैं। बाकी बचे हुओं में से $ज्यादातर छात्र कानून की पढ़ाई को चुनते हैं। ये ही लोग आगे चलकर न्यायाधीश के पद पर तैनात होते हैं। इस स्थिति में बदलाव लाना है तो कानून की पढ़ाई को चुनने वालों के लिए योग्यता निर्धारित करना $जरूरी है।
अमूमन लोग उसी समय हल ढूँढने लगते हैं जब कोई समस्या उठ खड़ी होती है। आफत आने से पहले एहतियात बरतने की सुध अकसर बिरले ही किसी में होती है। जो लोग बाहर हैं, उनकी कोई समस्या नहीं है। यदि कोई समस्या आ भी जाए, उनकी मदद करने के लिए कई लोग हैं।
लेकिन जेल में रहने वाले सभी लोगों के सामने कोई न कोई समस्या बनी रहती है। इसीलिए तो वे जेल के अंदर हैं। इनकी मदद करने के लिए जेल में कोई नहीं है। इसलिए क्यों न हम वहाँ जाकर जागरूकता पैदा करें? $जरूर करना चाहिए।
खास तौर से विचारणाधीन कैदियों को कानून की बातें सिखाकर उनकी सहायता करनी चाहिए। इसके $जरिए अगर मुकदमा सही है तो कानून का पक्ष लेते हुए उन्हें न्यायपूर्ण दंड दिला सकते हैं। यदि मुकदमा झूठा है तो सजा से मुक्त होने में उनकी मदद करनी चाहिए। इस तरह अदालत के समय की बचत हो सकती है। आम जनता को कानून के प्रति सजग बनाने के मकसद और उसी जोश में मैंने अपने ऊपर जारी एक वारंट से फायदा उठाते हुए करीब डेढ़ साल मुकदमा लड़कर गिरफ्तारी दी और चेन्ïनै के केंद्रीय कारागार में ८३ दिनों तक कैद में रहने का अनुभव अनुभव पाया।
मेरे विचार में इस प्रक्रिया से पुलिस और जूरियों ने कानून की कई बातें जान लीं। लेकिन विचारणाधीन कैदियों और सजायाफ्ता कैदियों में मेरी प्रतीक्षा के विपरीत प्रतिक्रिया हुई।
विचारणाधीन कैदियों को मेरा चिंतन समझ में नहीं आया। कारण, ‘वकीलों के रहते हमें कानूनी ज्ञान से क्या लेना देना है यही विचार इसमें आड़े आ रहा था।
इसके विपरीत, ‘सजायाफ्ता कैदियों ने मेरे चिंतन को खूब अच्छी तरह पकड़ लिया। उन्हें पछतावा होने लगा, ‘अरे कानून तो हमारे पक्ष में था मगर सही ढंग से दलील पेश करना नहीं आया तभी यह सजा मिली है। अगर मैं खुद अपना मुकदमा लड़ा होता तो बरी हो जाता। माना थोडी-बहुत सजा मिल भी जाती तब भी कोई खर्चा नहीं हुआ होता। सजा भी न्यायोचित लगती।
मैं कई लोगों को जानता हूँ जो अपना मुकदमा खुद लड़कर बरी हो गए थे। इनमें कुछ लोगों ने झूठा मुकदमा करने वाले लोगों पर मुकदमा दायर भी किया था।
पुस्तक के पहले संस्करण में मैंने इसके मूल उद्देश्य का खुलासा करते हुए बताया था कि कानूनी ज्ञान की $जरूरत किसलिए है और खुद अपना मुकदमा लडऩे का प्रयोजन क्या है। सुधी चिंतकों और पत्रकारों ने अपने न$जरिए पर जो प्रतिक्रिया दी, उनकी समीक्षाओं ने मुझे नया उत्साह प्रदान किया। उन्हें शुक्रिया अदा करने के लिहाज से पत्रकारों की समीक्षा को संकलित करके आमुख के रूप में जोड़ दे रहा हूँ।
पत्रकारों की समीक्षा को आमुख के रूप में जोडऩा एक नया निराला प्रयोग है। मेरा यही मंतव्य है कि इसके द्वारा पाठकों को पुस्तक के महत्व का आभास हो सकेगा। मेरी हार्दिक कामना है कि इस पुस्तक में लिखित विचारों के व्यापक प्रचार कार्य को भारत के आम नागरिक से लेकर समाचार माध्यम तक अपना सामाजिक कर्तव्य समझकर करें।
मेरी यह भी गुजारिश है कि इस किताब का प्रत्येक पाठक इसके बारे में अपनी राय से मुझे अवगत कराएँ।
खरगोश की जीत होगी ही।
कछुआ भी जीत लेगा; लेकिन
अकर्मण्यता नहीं जीतेगी।
इसलिए आएँ हम सब मिलकर कोशिश करें। कानून की जानकारी पाएँ। जीवन को समझ लें।
स्वयं लाभ उठाएँ। देश के लिए उपयोगी बनें।
कानून की सजगता के प्रति समर्पित
वारंट बाला

वकीलों, न्यायाधीशों और कानूनी प्रणाली के बारे में बात करते हैं। – महात्मा गांधी

महात्मा गांधी 1906‘भारत की स्थिति (जारी) वकील’…

लोग इस पेशे को दूसरों के दुखों को दूर करने के लिए नहीं, बल्कि खुद को समृद्ध करने के लिए अपनाते हैं।
यह मेरा ज्ञान है कि लोगों के बीच विवाद होने पर वकीलों को खुशी होती है।
कुछ परिवार उनके द्वारा बर्बाद कर हो गए हैंउन्होंने भाइयों को दुश्मन बना दिया है
वकील वे लोग हैं जिनके पास ज़्यादा कुछ करने के लिए नहीं होता। आलसी लोगजोविलासिता में लिप्त होने के लिए इस पेशे को अपनाते हैं।
वे ऐसे व्यवहार करते हैं कि गरीब लोग उन्हें लगभग स्वर्ग में जन्मा हुआ मानते हैं।
वे कानून की अदालत का सहारा लेने पर अधिक डरपोक और कायर हो जाते हैं।  
यह मानना गलत है कि अदालतों को लोगों के लाभ के लिए स्थापित किया गया है ।
यदि लोग अपने झगड़े खुद ही सु्लझा लेंतो किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।
केवल पक्षों को पता होता है कि कौन सही है।
तीसरे पक्ष का निर्णयन हमेशा सही नहीं होता।
वकीलों ने ये जान लिया है कि उनका पेशा आदरनीय है।
वे कानून वैसे ही गढ़ते हैं जैसे अपनी तारीफ़ें कर रहे हैं।
वे अपनी फ़ीस खुद ही निश्चित करते हैं।
मेरी द्रढ़ धारणा है कि वकीलों ने भारत को ग़ुलाम बना लिया है और अंग्रेज़ी अधिका को सुनिश्चित कर दिया है।
यदि वकील अपने पेशे को छोड़ देंऔर इसे केवल एक अपमानजनक वैश्याव्रत्ति समझेंतो अंग्रेज़ी राज कल ही टूट जाएगा।
मैंने वकीलों के संदर्भ में जो कहा है वो न्यायधीशों पर भी लागू होता हैये दोनों एक दूसरे के भाई हैंऔर एक दूसरे को शक्ति देते हैं।
आपको पहले तो ये समझने की ज़रूरत है कि वकीलों को कैसे बनाया गया और उनकापक्ष क्यों लिया गया। तब आप को भी इस पेशे से उतनी ही घ्रणा होगी जितनीमुझे है।
ये एक सत्य वक्तव्य हैकोई अन्य तर्क महज़ दिखावा है।
‘भारत – स्वराज’ में हम नवजीवन प्रकाशन ग्रह, अहमदाबाद, पिन कोड- 380 041

समाज के पंचेंद्रिय सदृश पाँच कानूनी पुस्तकें

समाज के पंचेंद्रिय सदृश पाँच कानूनी पुस्तकें

Mahatma Gandhiशरीर-संचालन के लिए जिस तरह पंचेंद्रियाँ आवश्यक हैं उसी तरह समाज के सम्यक्ï प्रवर्तन के लिए पाँच कानूनी पुस्तकें अनिवार्य हैं। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए इन पुस्तकों की रचना की योजना बनाई गई है। प्रस्तुत पुस्तक इन्साफ की तलाश में : अपराध विचारण  के अतिरिक्त जमानत लेने की प्रविधि, विधि विश्वकोश और कानून आपकी जेब में  ये किताबें निकल चुकी हैं।
‘इन्साफ की तलाश में : अपराध विचारण आपके हाथों में है। इसे हिंदी में अनूदित करके प्रकाशित करना सरल कार्य नहीं था। बड़ी कठिनाइयों का सामना करने के बाद ही यह काम संभव हुआ। पाठकों से माँग और आवश्यक समर्थन मिलने पर शेष किताबों के हिंदी संस्करण निकालने का प्रयास किया जाएगा।
गत दस वर्षों में कानूनी क्षेत्र में संघर्ष करते हुए कुछ नई जानकारियाँ मिलीं—इनमें से प्रमुख हैं ‘एक आदर्श वकील के रूप में महात्मा गाँधी, ‘साक्ष्य अधिनियम की अनूठी विशेषता, ‘वकालत के पेशे में भी महात्मा गाँधी की ईमानदारी और ‘वकालत के बारे में बापूजी के विचार। ये रोचक तथ्य मूल तमिल पुस्तक में नहीं हैं।

महात्मा गाँधी : एक आदर्श वकील

भारतीयों द्वारा अत्यंत आदरपूर्वक ‘राष्टï्रपिता के नाम से पुकारे जाने वाले महात्मा गाँधी को दुनिया के अनेक देशों के नेता और प्रबुद्घ लोग उन्हें अपना मार्ग दर्शक मानते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि भारत में जो अपने को गाँधीजी के अनुयायी होने का दावा करते हैं उन्हें गाँधीजी से संबंधित कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ मालूम नहीं हैं। मोहनदास गाँधी ने इंग्लैंड से बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त की। १० जून, १८९१ को उन्होंने वकालत के पेशे में प्रवेश किया। उस समय वे २३ वर्ष के थे। तब से लेकर बीस साल तक उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, भारत और इंग्लैंड में वकालत की।
जीवन में सत्य और अहिंसा का पालन करने का व्रत लेने वाले गाँधी जी वकालत के पेशे में ईमानदार रहते थे। कोई फरियाद या मामला लेकर आने वाले मुवक्किलों से वे बड़े सब्र के साथ पूरी बात सुनते थे। उनके पास प्राप्त काग$ज और सबूतों की पूरी छान-बीन करते। यदि वह आसामी वास्तव में पीडि़त पाया जाए, यानी यह मालूम हो जाए कि उसके साथ अन्याय हुआ है तभी वह उस मुकदमे की पैरवी करना स्वीकार करते थे। यदि वह व्यक्ति दोषी या आक्रामक लगे तो उस मुकदमे को हाथ में नहीं लेते थे। कई बार वे दोनों पक्षों को अपने कार्यालय में बुलाकर आपस में बातचीत करवाते थे और उनके बीच में सुलह करके मामले को निपटा देते थे।
ये सब बातें उनकी पुस्तक आत्मकथा (या सत्य के साथ मेरे प्रयोग) में दर्ज हैं। इस प्रकार मोहनदास करमचंद गाँधी अन्य वकीलों से अलग और अनूठे सिद्घ होते हैं।

वकालत करो, मगर समझकर

अधिवक्ता यानी वकील, दुनिया के चाहे किसी भी देश में हों, अपनी बिरादरी में एक अलिखित सिद्घांत का पालन कर रहें—’अपना मुवक्ïिकल अपराधी है यह बात स्पष्टï रूप से मालूम होने पर भी वे उनके पक्ष में पैरवी करना अपना फर्ज समझते हैं।
इसके आधार पर ही किसी भी मुवक्ïिकल का वकील प्रत्येक मामले में वकालतनामा पेश करते हैं। दरअसल ‘वकालत उर्दू का लफ्$ज है। इसका अर्थ बनता है, ‘पक्ष में बोलने का अधिकार। ‘पक्ष में बोलना, इसका मतलब बनता है, चाहे किसी ने अच्छाई की हो या बुराई, उसके कारणों को आगे रखकर उस कार्य को उचित ठहराते हुए बोलना।
वकील लोग कई बार यों बुरे कृत्यों पर लीपापोती करते हुए उन्हें सही ठहराने की कोशिश करते हैं, इसीलिए अकसर मुकदमा जीत नहीं पाते। वैसे वकील लोग मुकदमा हार जाने के बारे में चिंता भी नहीं करते। कारण उन पर हार-जीत का कोई असर नहीं पड़ता। दोनों स्थितियों में उनकी आमदनी घटती नहीं, बढ़ती ही रहती है। मुकदमा जीतने पर उसी बिना पर अपनी पूरी फीस दुह लेते हैं। हार जाने की हालत में, अपील करने पर पक्ïकी जीत का दिलासा देकर मुवक्ïिकल से पैसा उगलवा लेते हैं।
इसलिए विधि-क्षेत्र के अपने शोध से मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि ज्ञान और बोध के स्तर पर सोचा जाए तो मुवक्ïिकल का पक्ष लेकर पैरवी करना गलत है। तथ्य को समझकर बोलना ही उचित है।
जी हाँ, व्यक्ति के दोषी होने या निर्दोष होने की स्थिति का सुलझे हुए मन से विवेचन करने के बाद जो भी सत्य है उसका पक्ष लेते हुए इंसा$फ माँगना ही न्यायोचित कर्तव्य है। वकील भाई सोच सकते हैं, ‘न्याय और औचित्य की बात तो सही है, मगर इससे हमारी आमदनी के $जरिये पर पानी फिर जाएगा न? उनका यह चिंतन सही नहीं है।
लोग आये दिन अनेक समस्याओं से जूझते हैं। लेकिन उनके निवारण हेतु न्याय माँगने के लिए आगे नहीं आते। कारण यह है कि अदालत में कोई मुकदमा दायर करने पर उसका निपटारा होने के लिए सालों लग जाते हैं। न्याय-प्रक्रिया यदि दो-एक हफ्ते में पूरी होने की उम्मीद हो तो मुकदमों की संख्या कई गुना बढऩे की संभावना है। इससे वकीलों की आमदनी में बढ़ोतरी होगी, यही नहीं दो-एक हफ्ते में फैसला हो जाने की खुशी में मुवक्ïिकल बोनस के रूप में कुछ और धन दे भी सकते हैं।
ऐसी बात सुनकर वकीलों समेत कुछ लोग सोचते होंगे कि हमारे देश में यह तो शेखचिल्ïली का सपना जैसा है, हमारे देश में यह सब होने का नहीं है। उनकी यह सोच भी गलत है।
हमारे देश में जन्म लेकर स्वदेश में और विदेशों में बीस साल तक के अपने वकालत के जीवन के माध्यम से मोहनदास करमचंद गाँधी जी ने इसे सत्य बात साबित कर दिया। सच तो यह है कि हमारे देश के वकील और न्यायाधीश देश के विधि-विधानों से अनभिज्ञ हैं, तभी तो निचले स्तर के न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में एक ही मुकदमे पर अलग-अलग फैसले दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में केवल गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में वर्षों तक सफलतापूर्वक वकालत का अपना पेशा चलाने में समर्थ कैसे हुए? स्वयं गाँधी जी ने इसका उत्तर नहीं दिया है।
तो अपने पेशे में सफल होने के लिए क्या गाँधी जी ने देश-विदेश के विधि-विधानों का विश्ïलेषण करके उनमें पारंगत हो गए थे? अपने इस बारीक सवाल का उत्तर ढूँढ़ते हुए जब मैंने उनकी आत्मकथा (अथवा सत्य के साथ मेरे प्रयोग) सहित अनेक पुस्तकों का अनुसंधान किया तो मुझे इस तथ्य का पता चला।
महात्मा गाँधी को भी एक निश्चित कानून के अलावा और किसी कानून पर विशेषज्ञता प्राप्त नहीं थी—यही वह तथ्य है। वे जिस कानून के विशेषज्ञ थे वह है ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम।
प्रत्येक देश में विभिन्न प्रकार के कानून होते हैं। किसी देश के कानून में जो कार्य अपराध माना जाता है, यह $जरूरी नहीं है कि किसी दूसरे देश में वह अपराध माना जाए। इसी तरह दंड सभी देशों में एक जैसा नहीं होता। लेकिन साक्ष्य अधिनियम के बारे में यह बात नहीं है।
क्योंकि यदि यह सच है कि सभी देशों में आदमी मुँह से ही बोलते हैं, आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, काग$ज पर कलम से लिखते हैं, हथियार से ही हमला करते हैं, तो इसी तर्क के आधार पर मैंने जाना कि साक्ष्य का कानून भी सभी देशों में एक जैसा ही होना चाहिए। साक्ष्य अधिनियम में पूरी तरह निष्ठïा रखने के कारण ही गांधीजी के लिए विभिन्न देशों के न्यायालयों में सफलता पूर्वक वकालत करना असाधारण रूप से साध्य हुआ।

वकीलों के बारे में गाँधीजी के विचार

गाँधीजी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज के ग्यारहवें अध्याय में वकीलों के संबंध में बताया है :
”वकालत का पेशा सच्चरित्रता नहीं सिखाता। इस पेशे में आने वाले लोगों का मकसद मह$ज धन कमाने का है, दुखी जनों की मदद करने का नहीं।
”मैं जानता हूँ जब लोगों के आपस में झगड़े-फसाद होते हैं तब वकील लोग खुश हो जाते हैं। ये सगे भाइयों को जानी दुश्मन बना देते हैं। दु:ख की बात है कि ये लोग शारीरिक काम से जी चुराते हैं और ऐशा आराम में डूबे रहते हैं। इनके कारण कई परिवार तबाह हो गए हैं।
”यह समझना गलत है कि न्यायालय जनता के कल्याण के लिए बनाए गए हैं। अगर लोग अपने विरोध और वैमनस्य को आपस में बातचीत करके दूर करने लगें तो उनके ऊपर तीसरा कोई आदमी हावी नहीं हो सकता। न्याय कहाँ है, केवल संबंधित लोगों को इस बात का पता रहता है। तीसरे आदमी द्वारा दिया जाने वाला फैसला हमेशा न्यायपूर्ण रहेगा, यह जरूरी नहीं है।
”वकीलों के बारे में मैंने जो कुछ कहा है, वह बहुत हद तक न्यायाधीशों के विषय में भी सही है। जज लोग वकीलों के मौसेरे भाई जैसे ही हैं। दोनों एक दूसरे के हितों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं।
स्रोत : आत्मकथा या सत्य के साथ मेरे प्रयोग लेखक मो. क. गाँधी, प्रकाशक नव जीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद—३८००१४ (इस पते पर संपर्क करने पर आत्मकथा की प्रति प्राप्त हो सकती है या दिल्ïली राजघाट स्थित गाँधी पुस्तक भवन से भी मिल सकती है।)
                               —वारंट बाला
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